Tuesday, July 2, 2013

अशोक आंद्रे

मुक्ति


वह बूढ़ा
निहारता है रोज पृथ्वी को
उसकी नम आँखें ढूँढती हैं कुछ
पता नहीं किसको,
उसके अन्दर फैली अंधेरी गुफाओं में
जहां,पृथ्वी के अन्दर से
उठती हरियाली के बीच कुछ
जो खेतों के ऊपर लहरा जाती है।
जहां उसका वजूद
एक ताकत महसूस करता है
उसे लगता है माँ का आँचल भी तो
पृथ्वी के ऊपर लहराती हरियाली की तरह है।
कुछ कणों को उठा कर -
वह बूढा
निहारता है अपने आसपास के माहौल को
जहां तक उसकी निगाह जाती है
दूर एक सूखे टीले को देखते ही
घबरा जाता है
उसे लगता है कि
उसके चेहरे पर फैली झुरियां
उस टीले पर अंकित हो गयी हैं
डरावनी जरूर हैं पर आकर्षण भी पैदा करती हैं
आखिर उसी टीले पर तो कई बार बैठा है।
सर्द हवाओं के चलते
सवेरे की गुनगुनी धूप के कारण ही तो
उसके खेत की हरियाली भी तो आकर्षण पैदा करती है
शायद इसी के चलते                                                                                            
पृथ्वी का आकर्षण भी तो
मनुष्य को खींचता है अपनी ओर
कभी जीवन बनकर तो कभी-
मुक्ति  का द्वार बन कर।
इस रहस्य को समझते ही
उसकी आँखों की चमक
उसके चेहरे की झुर्रियों के बीच उभरने लगती है,
और वह
कुछ समय के लिए
पृथ्वी की छाती पर लेट कर
आकाश को घूरने लगता है
उसे लगता है कि
शायद उसको मुक्ति  का द्वार मिल गया है।

9 comments:

सुनील गज्जाणी said...

उसे लगता है कि
उसके चेहरे पर फैली झुरियां
उस टीले पर अंकित हो गयी हैं
namaskar , behad sunder panktityaan hai ye , behad khoob surat kavitaa ek darshan ko samakh karti . sadhuwad
saadar

PRAN SHARMA said...

KAVITA KAA BHAAV CHITRAMAAYEE BHASHA SE MIL KAR KHIL UTHAA HAI .
UMDA KAVITA ISE KAHTE HAIN . BADHAAEE .

तिलक राज कपूर said...

उसे निश्चित ही मुक्तिद्वार मिल गया है।

रश्मि प्रभा... said...

बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक के कई एहसास धरती से आकाश तक घूमते गए आपके शब्दों में ... सादर

रूपसिंह चन्देल said...

सार्थक भावों को सहेजे बहुत ही उल्लेखनीय कविता.

बधाई,

चन्देल

ashok andrey said...
This comment has been removed by the author.
Anonymous said...

Priya Ashok ji,

Kavitayen padhin . Man dravit ho gaya. Pahli kavita teele wali bahut hi acchi lagi.
Shail Agrwal

बलराम अग्रवाल said...

आंद्रे जी, बेहतरीन बिम्बात्मक कविता है। बधाई।

सुधाकल्प said...


प्रकृति का मानवीयकरण करते हुए कवि निरंतर जीवन की सच्चाई ढूँढने की कोशिश करता है। पृथ्वी उसे हमेशा प्रसन्न व संतुष्ट दिखाई देती है । युवावस्था के समय वह बड़ी खूबसूरत और इठलाती नजर आती है । उस समय उसके प्रशंसकों की कमी नहीं । पर अवस्था का मौसम उसका भी बदलता है । अपने रूखे -सूखे ,अकेलेपन - पीलेपन को लिए भी निराशा के बादलों को अपने ऊपर ज्यादा नहीं ठहरने देती। उसमें भी वह गति का अनुभव करती हैं ,भोगे सुख को याद कर सहज भाव से अपनी क्रियायों में सतत लीन रहती हैं ।
पृथ्वी के इस रूप से इंसान को जिंदगी की राह
पर चलने की दिशा व ऊर्जा मिलती है ।
कविता में काव्यात्मक अनुभूति व उसका सौंदर्य
देखते ही बनता है। इतनी सुंदर कविता के लिए बधाई ।
सुधा भार्गव