Saturday, February 11, 2012

अशोक आंद्रे







अनाम रहस्य


जिसे बिना देखे
चले जाते हैं दूर
जो कुछ भी है उनके पास
उसे, स्वयं को मौन रख कर
उसी के सहारे
अपने मौन में ही
किसी अनाम को
स्थापित करते हुए
दिखाई देते हैं.

वहां कुछ भी
समाप्त नहीं होता है.
उसकी चुप्पी
आकाश में उड़ते
पक्षी की तरह,
कोमलता का एहसास कराते हैं.
कई बार
उसके अन्दर बहता तरल
समय को छूता हुआ
आगे निकल कर
नदी का रूप ले लेता है.
लेकिन नदी -
कभी लौटती नहीं
हाँ, नन्ही चीटियाँ जरूर लौटती हैं.
एक छोटा सा घेरा बनाती हुई
ताकि मौत के रहस्य को
उदघाटित किया जा सके.
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जंगल में

जंगल में
छोटे से आले के अन्दर
शांत बैठी हुई मूर्ति
सिवाय आँखों के
सब कुछ कह जाती है.

अपने ही ध्यान में
खोई हुई वह,
किसी मंदिर की
मूर्ति जैसी लगती है,

बस प्रणाम करो और...
फिर कहीं दूर चले जाओ.

क्योंकि वहां खामोश
पेड़ के,
पत्तों की
सरसराहट,
किसी अज्ञात का डर,
पैदा करते हैं.

अभी तुम भी
चुप्प रहो
पता नहीं-
हो सकता है यह
इस देवी का
कोई अज्ञात रहस्य हो

तभी तो
सभी चर-अचर
नीले आकाश को देखते हैं सिर्फ ,
सिवाय... उस देवी को.
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10 comments:

https://kathaanatah.blogspot.com said...

NICE AND CREATIVE IMAGINATION.GO AHEAD.BETTER PROGRESS.

तिलक राज कपूर said...

आपकी हर कविता अहसास कराती है कि एक संपूर्ण पक्रिया से जन्‍मी है।
शब्‍दों के ताने बाने में विचार-श्रंखला को इस प्रकार बॉंधना सरल तो नहीं।

सुभाष नीरव said...

दोनों कविताएं असरदार हैं। कविता की शर्तों को पूरा करतीं! बधाई !

Vandana Ramasingh said...

प्रभावी कवितायें ....आभार

Anju (Anu) Chaudhary said...

दोनों ही कविता का शब्द शब्द अपने आप में सम्पूर्ण अर्थ लिए हुए ....आभार

Anonymous said...

भाई,

दार्शनिक और गहन-गूढ़ रहस्य उत्पन्न करती, मन-मस्तिष्क को झकझोरती कविताएं.


बधाई,


चन्देल

Anonymous said...

Ashok jee
Bahut hee prabhvshaalee kavitayen ..Badhaaee,
aisee kavitayen sach, mujhe bahut bhatee hainn!!!
'anam rahasy' sochne ko uksatee hai.... un rahsyon kee parat dar parat kholne ke liye.....jinhen
aap ne safaltaa se aproksh roop se udghatit kar diyaa hai....aage bhee aisee sfal rachnayon kee
prateeksha me.
-Inder Savita

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी ,
आपकी कवितायें पढ़ी | अच्छी लगीं |
सादर
इला

PRAN SHARMA said...

ASHOK JI , AAPKEE DONO KAVITAAYEN
BAHUT HEE ACHCHHEE LAGEE HAIN .
YUN HEE LIKHTE RAHIYE AUR MAN KO
LUBHAATE RAHIYE . SHUBH KAMNAAYEN .

सुधाकल्प said...

आदरणीय अशोक जी

आपका ब्लॉग खोलते ही सबसे पहले नजर पड़ी विशाल समुद्र और उसके किनारे ठूंठ से खड़े पेड़ पर जिसकी ऊपर वाली टहनियों की दृष्टि आकाश पर जमी है । मानो कहा रही हों -मद से चूर इंसान समुद्र की तरह गर्जन न कर । एक दिन तेरा हाल भी मेरा जैसा ही होना है । यही ऊपर वाले का नियम है । मुझे यह संदेशात्मक चित्र बड़ा पसंद आया ।

एक बात तो निश्चित है आपको प्रकृ ति से बहुत प्यार है और आपकी कवितायें भी कभी प्रकृति के माध्यम से बातें करती है तो कभी उसके रहस्यों को उजागर करती हुईं सुधि पाठक के दिलो -दिमाग में खलबली मचाकर अपनी अमिट छाप छोड़ जाती हैं ।