Tuesday, February 3, 2009

अशोक आन्द्रे

धर्म और संस्कृति

एक हताश फटी रोशनी के बीच

कुछ शब्द

कैद कर रखे है संस्कृति के तुमने

दम तोड़ते हुए

अँधेरे बंद गलियारों के मध्य

जहाँ धर्म

रोशनी के चेहरे पर

कालिख पोत देता है ।

अगर ऐसा नहीं होता तो कैसे

एक ही धर्म के दो व्यक्ति

जान के प्यासे हो गये

और उँगली को संस्कृति के

पेट में घुसेड़

वर्तमान की लड़ाई को

अतीत के अप्रिय धब्बों में छिपाए

सफेद पन्नों पर स्याह-सफेद करते रहे

और धर्म की आड़ में

संस्कृति की फाख्ता काटकर

विजय -दुंदुभी बजाते रहे ?

जबकि इतिहास गवाह है , कि

संस्कृति धर्म से ऊपर होती है

अरे पागलो ! हत्यारों की भी

कोई संस्कृति होती है !

बुढ़ापा

सन्नाटा है !

पता नहीं क्यों

किस बात का भय

साँस लेता है

शिराओं में

जिन्दगी का फलसफा

एक - एक कर

आत्महत्या कर रहा है

हृदय की गोधूली का द्वन्द्व

आँखें फाड़े

बुझती आँच पर

धुआँ - धुआँ होता है

यह उम्र का अँधेरा है

जो , अब गहराने लगा है ।

1 comment:

Anonymous said...

Priya Ashok,

Tumbhari dono kavitayen apane samay ko bakhubi jiti khubsurat kavitayen hain. Apane blog mein dene ke liye badhai.

Chandel