Sunday, February 1, 2009

अशोक आन्द्रे

तलाश

(१)

सदियों से लगातार आज तक

आदि और अंत के बीच

करता रहा तलाश , एक घर की

और समय के साथ

मांस और मज्जा के बीच की

तलहटियों में ,

खोता रहा

घर के सपनों को , लगातार

(२)

रात की तरह समय

अपनी पहचान कराते हुए

पूरे खौफ के साथ

श्मशान के पूर्वी हिस्से में

पालथी मारकर

बैठ गया था ।

हम सहज ही

मेले में

खोये हुए बच्चे की तरह

करते रहे तलाश एक अंगुली की

अपने ही आसपास - ताउम्र ।



दुःस्वप्न

एक गलियारे से

दुसरे गलियारे में जाता हुआ आदमी

मृगजाल में ठिठकता है ,

सपने लुभाते हैं उसे,

विस्फोट से पहले

दहकते पलाशों में

चमकते गलियारों में ।

लेकिन नन्ही चिड़िया सहम जाती है

उसके हाथ में ,

हरी पत्ती देखकर ।

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